संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की विदेशनीती: आत्मविश्वास का अभाव
अविनाश गोडबोले
2009 मे हुए चुनाव के बाद फिर एक बार कॉंग्रेसके नेतृतवमे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने सरकार बनाया. इन चुनाओमे वामपंथी दल और समाजवादी पार्टी जैसे भूतपूर्व साथियोंको भारी नुकसान हुआ और UPA मे कॉंग्रेस का स्थान मज़बूत हो गया. इसका यह परिणाम अपेक्षित था के नयी सरकार एक सकारात्मक विचारधारा लेकर आगे चलेगी और देशके भविष्य के बारेमे दिशा दर्शक काम करेगी. 1996 से 2009 तक भारतमे बने हरेक सरकार मे मुख्य पार्टी कमज़ोर रही है और प्रादेशिक अथवा वैचारिक गठबंधन डालो की स्थिति मज़बूत और निर्णायक रही है. परिणामी सरकारोँकी नीतीयाभी छोटे दलोँके हितअनुसार बदलती रही है. जब 2009 के चुनाव मे कॉंग्रेस ने सबसे ज़्यादा सीट्स पाई थी. तब यह अंदाज़ जताया गया था की उसकी मज़बूती उसके आत्मविश्वास मे परिवर्तित हो सकती है लेकिन पिछलेएक साल का विश्लेषण करतहुए भारतीय विदेशनीतिमे ऐसा कोई बदल या ऐसी कोई घोषणा दिखाई नही दी है.
26/11 के हमलो के बाद पाकिस्तान पर दबाव डालकर वहांके सरकार को आतंकवादी गुटोंके खिलाफ कारवाई के लिए दबाव बनाना यह इस सरकार की प्रार्थमिकता रही. इस तरिकेसे भारत ने युद्धक़े पर्याय को टाल डाला और साथ ही साथ पाकिस्तान को ISI और आतंकवादी गुटोंके बीच चल रहे संबंधोको उजागर करनेका प्रयास किया. शर्म अल शेख़ मे पाकिस्तान के साथ जारी किए हुए संयुक्त वक्तव्य ने काफ़ी बाड़ा राजनीतिकी विवाद खड़ा कर दिया. उस वक्तव्य मे दूरदृष्टिका अभाव सामने आया. बलोचिस्तान का सन्दर्भ वहाँ के मानवाधिकार और हिंसा के प्रति सदभावना दिखाने के लिए किया गया था लेकिन पाकिस्तान ने उस सन्दर्भ को भारत के उस प्रांत के विघटन के समर्थन मे होनेके रूप मे दिखाया. ग़लत तरिकेसे लिखे गये वक्तव्यसे भारत देशको राजनीतिक शर्मिंदागीका सामना करना पड़ा और पाकिस्तान सरकारने उसे अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया.
फिर एक बार काबुल मे भारतीय दूतावास के बाहर हुए बड़े धमकेमे अनेक जाने गयी और दूतावासका बड़ा नुकसान हुआ. हालाके 2008 के धमाकेके बाद किए गये सुरक्ष इंतज़ाम से सारे भारतीय सुरक्षित बच गये. इस धमाके के जड़े भी पाकिस्तान तालिबान और ISI तक जा पहुची और स्पष्ट हो गया के पाकिस्तान की सरकार भारत के आफ्गानिस्तान नीति के बारेमे असुरक्षित है. इसी कारनवश, भारत की अफघानिस्तान नीति आफ-पाक से जुड़ जाती है. जब तक पाकिस्तान भारत के नीति से असुरक्षित महसूस करेगा तबतक वहाँ का पुनर्वसन का काम पूर्ण नही हो पाएगा. और पुनर्वसन के बिना जनवादी प्रक्रिया दुर्बल रहेगी. इसलिए अफघानिस्तान के सन्दर्भ मे भारत पाकिस्तान के बीच मे वार्ता होनी चाहिए.
भारतीय चुनाओके बीच मे ही श्री लंका मे सेना ने लिट्टे की आतंकी सेना और उसका नेतृत्व करनेवाले प्रभाकरन को लंबे युध के बाद मार गिराया. भारत ने ना ही इस प्रक्रिया मे भाग लिया ना इसका विरोध किया. राजीव गाँधी के हत्या से भारत मे लिट्टे के बारेमे संवेदनशीलता अधिक है और भारत इस समस्या मे और कोई भाग नही ले सकता था. इसलिए भारत ने इस पूरे घटना क्रममे चुप्पी साधी रखी. अब विस्तापित श्री लंकाई तमिल जनताका पुनर्वसन जल्दी होने के लिए वहाँ की सरकार पर दबाव बनाई रखने की ज़रूरत है. अन्यथा तमिलोंके शोषण का प्रश्न, जिसके लिए लिट्टे का संघर्ष शुरू हुआ था, सुलझा ही रह जाएगा.
अमरीका के नये राष्ट्राध्यक्ष ओबामा के साथ भारतको नज़दीकी रिश्ते बनाने होंगे क्यॉंके आंतरराष्ट्रीय राजनीति मे आ रहे बदल मे दक्षिण आशिया का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है. २००९ की भारतीय विदेशनीति इस वस्तुस्थिति के अनुरूप रही. अमरीका के नये राष्ट्राध्यक्ष ओबामा के साथ भारतको नज़दीकी रिश्ते बनाने होंगे क्यॉंके आंतरराष्ट्रीय राजनीति मे आ रहे बदल मे दक्षिण आशिया का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है. २००९ की भारतीय विदेशनीति इस वस्तुस्थिति के अनुरूप रही. ओबामा के दक्षिण आशिया और वैश्विक गणित मे भारत का स्थान इस बात से स्पष्ट होता है के प्रधांनमंत्री श्री मनमोहन सिंह अमरीकी राष्ट्राध्यक्ष ओबामा के प्रथम राजकीय अतिथि रहे. लेकिन इसी समय भारत को एस भी ध्यान मे रखना होगा के भारत अमरीकी और चीनी शक्ति संघर्ष का हिस्सा ना बने और अपने विदेशनीति की स्वतंत्रता बनाए रखे जिससे भारत दोनो देशोंसे शांतिपूर्ण और प्रगतिशील संबंध बनाए रख पायेगा.
पिछले एक साल मे भारत और चीन के बीच तनाव पूर्ण संबंध रहे है. तथापि भूतपूर्व विदेश सचिव के रूप मे श्री शिवशंकर मेनन ने इस तनाव को कुशलता से स्मभाला. चीन के आक्रामक रूप के सामने कुशलता से भारत का मुद्दा सामने रखा. विवादित सीमारेखा के चलते भारत चीन संबंध हमेशा ही जटिल रहेंगे. जहाँ एक और आपसीक मतभेद सुलझनेकी कोशिश करनी होगी, दूसरी और आर्थिक व्यवहार और व्यापार बढ़ाना होगा जिससे आपसी विश्वास मज़बूत हो सकता है. तिब्बतके अध्यात्मिक गुरु और तिब्बतके संघर्श के नेता श्री दलाई लामा के तवांग यात्रा को भी कुशलता से आगे बढ़ने दिया और चीन के दबाव से विरोध दिखाया. दलाई लामा भारत के धार्मिक विविधता के प्रतीक है और भारतिय धार्मिक सहिष्णुता का सबसे उत्तम उदाहरण है. चिंके आक्रामक रूप के सामने उनकी तवांग यात्रा को आयेज बढ़ने देना चिनके लिए एक बहुत बड़ा संदेश था.
इन सारे उदाहरनोसे यह स्पष्ट होता है के पिछले एक साल मे भारत की विदेशनीति पर हर एक और से दबाव पड़ता रहा है. भारत ने भी आपने आपको एक महाराज्य के रूप मे देखनेकी इच्छा और क्षमता दिखाई है. जिसके लिए भारतको शायद परस्पराविरोधी नीति को साथ साथ आगे बढ़ाना पड़ सकता है. प्रश्न ये है के क्या भारत ऐसे विदेश नीति का स्वीकार करेगा और क्या उसे अंजाम दे पाएगा. इसी कारण पिछले एक साल मे विदेश नीति मे अपेक्षा और ज़िम्मेदारी के बीच अंतर दिखाई दे रहा है. एक ठोस विदेश नीति के लिए इस अंतर का समाधान आनेवाले समय मे निकालना होगा. साथ ही साथ जोखिम भी उठानी होगी क्योंकी उसके बिना राष्ट्रीय हित आगे नही बढ़ेगा.
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दरअसल ज़्यादा इंग्लीश मे लिखता हू और ब्लॉग पर अपने विचार मित्रोसे शेअर करता हूँ
आजकल एक हिन्दी पत्रिका के लिए विदेश नीति और आंतरराष्ट्रीय संबंध पर लिख रहा हूँ.
Quillpad इस्तेमाल करता हूँ.
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद
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